Tuesday, April 12, 2011

-: साधन सूत्र-30 :-

-: साधन सूत्र-30 :-
जीवन में अशांति क्‍यों


यह प्रश्न् इसीलिए उठता है कि अशान्ति किसी भी मानव को पसन्द नहीं है; किसी को अच्छा नहीं लगता है। सब को शान्ति प्रिय है। मानव की जीवन में सर्वत: (universally) मांग ही होती है शान्ति, स्वाधीनता और प्रियता की। और यह प्राप्य भी है; फिर भी हमसे क्या त्रुटि होती है कि जीवन में अशान्ति आती ही है?

विचार करने पर मालूम होता है कि सबसे पहली भूल यह होती है कि हम जीवन का अर्थ ही नहीं समझते। जन्म से मृत्यु तक जो समय अवधि (time) है उसे ही जीवन मानते हैं। परन्तु जीवन तो नित्य, अविनाशी रसरूप तत्व है।

दूसरी भूल होती है कि हम अपने बारे में विचार ही नहीं करते कि 'मैं' हूँ क्या,-क्या मैं मात्र शरीर हूँ या शरीर से भिन्न अपना कोई अस्तित्व है।

सच्चाई यह है कि ''मैं शरीर नहीं हूँ और शरीर मेरा नहीं है''। यह मानने में बाधा क्या है? हम शारीरिक और मानसिक दोनों ही रूप से कोल्हू के बैल की तरह निरन्तर चलते ही रहते हैं (अर्थात् हर समय कुछ न कुछ करते रहते हैं और कुछ न कुछ आगे पीछे का चिन्तन करते रहते हैं।) कोई ठहराव है ही नहीं जब हम शान्त होकर आत्म-चिन्तन कर सकें।

यदि हम शान्त होकर अपने बारे में विचार करें तो यह सहज समझ में आयेगा और अनुभव करेंगे कि मैं शरीर नहीं हूँ। क्यों,क्योंकि यदि मैं शरीर होता तो शरीर का दृष्टा नहीं हो सकता था। हमारा अनुभव है कि हम दृष्टा के रूप में देखते है कि मन क्या चाह रहा है,बुध्दि क्या सोच कह रही है,विवेक क्या कह रहा है,चित्त खिन्न या प्रसन्न है, आदि। तब यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि मैं शरीर से अलग कुछ हूँ।

मानव सेवा संघ के प्रणेता स्वामी शरणानन्द जी का इस विषय पर व्याख्या/प्रतिपादन यहाँ प्रस्तुत है जिस से उपर्युक्त तथ्य और स्पष्ट हो जायेंगे:-

''आप सोचिये जो शरीर आपको मिला है उसको आप मैं कहते हैं क्या? मेरा शरीर कहते हैं कि मैं शरीर कहते हैं?.......जिसको यह कहते हैं उसको 'मैं' कह सकते हैं क्या?......अपने ज्ञान के प्रकाश में..... ऐसा लगता है कि शरीर को हम 'यह' करके अनुभव करते हैं। अच्छा तो जो 'यह' है उसका नाम 'मैं' नहीं हो सकता और जिस पर मेरा स्वतन्त्र अधिकार नहीं है, वह मेरा नहीं हो सकता.....।''

होता यह है कि जब हम देह से अपने को मिला देते हैं अर्थात् शरीर में ही जीवन बुध्दि हो जाती है- अपने को शरीर ही मानते हैं, तब अपने में अनेक उपाधियाँ जोड़ लेते हैं; मैं अमुक हूँ, मेरा 'यह' आदि। ''देश, जाति, मत, सम्प्रदाय, पद, कुटुम्ब और कार्यक्षेत्र के अनुरूप अनेक मान्यताओं से अपने को मिला लेते हैं,पर सभी मान्यताओं की भूमि केवल देह है।'' यही देहाभिमान का रूप ले लेता है। अपने को देह मानने से भोग की ही रुचि उत्पन्न होती है जो सब प्रकार से अहितकर है। इसलिए देहाभिमान कैसे उत्पन्न होता है और उसका नाश होना क्यों आवश्यक है इस पर विस्तृत विचार आवश्यक है।

इस संबंध में मानव सेवा संघ दर्शन से उध्दरण विचार हेतु प्रस्तुत है:-

''देह के तादात्म्य (identity) से ही देह का अभिमान उत्पन्न होता है और देह के अभिमान से ममता और कामनाओं का जन्म होता है। देह अभिमान का परिणाम है-ममता और कामना।''

''ममता और कामना है क्या और उनका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है। मानव सेवा संघ दर्शन के अनुसार ''ममता सुख लेने का एक उपाय मात्र है। जिससे जितना ज्यादा सुख लेंगे,उससे ममता तोड़ना उतना ही कठिन होगा। अपना मानना ही ममता है।''

ममता कैसे टूटे? मानव सेवा संघ दर्शन का उध्दरण बताता है कि-

''साधक को ममता रहित होना है। ममता शब्द का क्या अर्थ समझा आपने? अगर सभी को अपना मानो तो ममता नहीं कहलाती। और किसी को अपना मानो और किसी को अपना मत मानो,इसका नाम ममता है। यह कैसे छूटे?......जिसके साथ मेरा नित्य सम्बन्ध नहीं रह सकता उसको अपना नहीं मानना चाहिए। उसकी सेवा करनी चाहिए।..... तो सेवा करना और अपना न मानना,इससे ममता नाश हो जाती है। और इसका फल होता है कि मनुष्य को निर्विकारता प्राप्त होती है। उसके चित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं रहता।'' ...... ''निर्विकारता बिना निर्ममता के प्राप्त नहीं होती।''

नोट:- जिसके चित्त में किसी प्रकार का विकार नहीं होगा,उसके जीवन में अशान्ति का प्रश्न ही नहीं।

आगे उध्दरण से ज्ञात होगा कि जीवन में,ममता रहने से क्या कुपरिणाम होता है:-

''देश काल की ममता सीमित बनाती है तथा वस्तु और व्यक्ति की ममता लोभ और मोह में आबध्द करती है। .....लोभ की उत्पत्ति जड़ता में और मोह की उत्पत्ति वियोग के भय में आबध्द करती है। ......वस्तुओं की ममता अपने को संग्रही बनाती है और समाज में दरिद्रता उत्पन्न करती है जो विप्लव का हेतु है। व्यक्तियों की ममता अपने को मोही बनाकर आसक्त कर देती है और जिनसे ममता की जाती है उनमें अधिकार लालसा जागृत करती है। मोह और आसक्ति कर्तव्य का ज्ञान नहीं होने देते और अधिकार लालसा, की हुई सेवा तथा प्रीति का दुरुपयोग कराती है और तृष्णा में आबध्द करती है।''

अगला प्रश्न् होता है कि ममता और कामना छूटने से जीवन पर क्या प्रभाव आता है? मानव सेवा संघ दर्शन से उध्दरण इसे स्पष्ट करता है:-

''.... देखिये, वस्तु हमारे हृदय को दूषित नहीं करती, लेकिन वस्तु की ममता हृदय को दूषित करती है, वस्तु की कामना हृदय को दूषित करती है। वस्तु की ममता से तो जड़ता आ जाती है और वस्तु की कामना से अशान्ति आ जाती है। अगर वस्तु की ममता न रहे और वस्तु की कामना न रहे; मेरा कुछ नहीं है, ममता गई, मुझे कुछ नहीं चाहिए,कामना गई। तो मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिए,इन दो बातों से हृदय में न तो जड़ता रहती है और न अशान्ति रहती है.......ममता जाने से जड़ता गई,कामना जाने से अशान्ति गई।"

नोट:- 1. ''मेरा कुछ नहीं है, यह बात मानने का अर्थ होता है कि शरीर भी मेरा नहीं है।"

2. जड़ता का अर्थ होता है अपने स्वरूप की विस्मृति

3. 'हृदय' का अर्थ इस प्रसंग में ''व्यक्ति के मनोभावों का केन्द्र से है। उसमें

प्रेम का भी उदय होता है।"

कामनापूर्ति के फेर के बारे में मानव सेवा संघ दर्शन कहता है कि-

''कामनापूर्ति के जीवन में प्रवृत्ति है, परन्तु प्राप्ति कुछ नहीं है,कारण कि अनेक बार कामनाओं की पूर्ति होने पर भी अभाव का अभाव नहीं होता,अपितु

जड़ता परतन्त्रता एवं शक्ति हीनता में ही आबध्द होना पड़ता है जो स्वभाव से ही प्रिय नहीं है।....कामना पूर्ति के जीवन में श्रम है,विश्राम नहीं; गति है स्थिरता नहीं; भोग है; योग नहीं; अशान्ति है, चिर शान्ति नहीं.........।"
उपर्युक्‍त उद्धरणों से यह स्‍पष्‍ट है कि जीवन में सारी विकृत्तियों का आरम्‍भ यहीं से होता है जब हम शरीर को ही 'मैं' मान लेते हैं। परिणाम यह होता है कि शरीर के नाते ही हम किसी को अपना और किसी को गैर मानते हैं और मिले हुए को अपना और अपने लिए मानते हैं।

इस भूल के कारण हम इन्द्रियों द्वारा विषय भोग को ही जीवन का उद्देश्य और शरीर की आवश्यकताओं को जीवन की मांग समझ बैठते हैं। ऐसी मान्यताओं से उत्पन्न विभिन्न प्रकार की विकृत्तियों यथा लोभ,मोह,स्वार्थ,राग द्वेष आदि में हम जकड़ जाते हैं। सांसारिक उपलब्धियों को ही जीवन का उद्देश्य और जीवन की सफलता मानते हैं। उसके पीछे पागल की तरह (mad race) दौड़ते रहते हैं परन्तु मृगतृष्णा की तरह वह दौड़ाता ही रहता है।

यह हमें समझने की बात है कि देहाभिमान अर्थात शरीर में जब तक जीवन बुध्दि रहेगी तब तक निर्मम,निष्काम नहीं हो सकते। निर्मम,निष्काम नहीं होंगे तो कर्तव्य-परायण नहीं हो सकते, कर्तव्य-परायण नहीं होंगे तो कर्तव्य-कर्म के पश्चात् सहज निवृत्ति और शान्ति नहीं पा सकेंगे।

कामनाओं के रहते हुए,कामना-पूर्ति के सुख और कामना-आपूर्ति के दु:ख में फॅंसे रहेंगे। कामना पूर्ति नवीन कामनाओं को जन्म देती है और सभी कामनाएं किसी की पूरी होती नहीं, सो फिर दु:ख और परिणामत: अशान्ति।

जब तक कामनाएँ रहेंगी,उनकी पूर्ति हेतु प्रयास में श्रम और पराश्रय रहेगा ही। श्रम और पराश्रय के रहते हम पराधीन ही रहेंगे। कामनाओं के रहते हम अपने में सन्तुष्ट नहीं होंगे। अपने में सन्तुष्ट नहीं होंगे तो स्वाधीन नहीं होंगे। सो पराधीनता के रहते शान्ति कहाँ।

हम चाहते तो यह है कि जीवन में अशान्ति न रहे,परन्तु साथ ही देहाभिमान भी नहीं छोड़ते। देहाभिमान के कारण ही हमें क्षोभ होता है,क्रोध आता है,ममता और कामनाओं का जन्म होता है। ''देहाभिमान जो होता है, वह अपनी रुचि के विरुध्द बात सुन नहीं सकता।

अत: यदि  हम  चाहते हैं  कि  जीवन  में अशान्ति न हो तो हमें देहाभिमान से छुटकारा पाना ही होगा। देहाभिमान होता है देह से तादात्म्य (identity) के कारण। सो देह से तादात्म्य टूटना आवश्यक है। एक प्रश्नकर्ता के उत्तर में स्वामी शरणानन्द जी ने इसका सहज उपाय बताया है:-

उत्तर: (1) ज्ञान पूर्वक यह अनुभव करें कि 'मैं' शरीर नहीं हूँ अथवा शरीर मेरा नहीं है, देह से तादात्म्य का नाश हो जाता है।

(2) दूसरों को सहयोग देने से स्थूल शरीर से, इच्छारहित होने से सूक्ष्म शरीर से और अप्रयत्न होने से कारण शरीर से असंगता प्राप्त होती है। तीनों शरीरों से असंगता प्राप्त होते ही देह से तादात्म्य का नाश हो जाता है।

इस पूरी व्याख्या को मानव सेवा संघ ने संक्षेप में इस प्रकार कहा है:-

''जीवन के सत्य को स्वीकार करना सत्संग है। जीवन का सत्य क्या है? देह 'मैं' नहीं हू्ँ, देह मेरी नहीं है,यह जीवन का सत्य है। दृश्य-मात्र से मेरा नित्य सम्बन्ध नहीं है,यह जीवन का सत्य है। जिससे नित्य सम्बन्ध नहीं है उसकी ममता और कामना के त्याग से अशान्ति और पराधीनता का नाश होता है, यह जीवन का सत्य है।"

अत: मात्र  इस  सत्य  को  स्वीकार करने से  अशान्ति  से  छुटकारा  निश्चित  है।

अन्त में- ईश्वर के शरणागत मानव के जीवन में अशान्ति नहीं होती।

- ब्रह्मलीन संत स्वामी शरणानन्द द्वारा

प्रदत्त मानव सेवा संघ दर्शन से।

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1 comment:

  1. रामचरितमानस मे मानव जीवन को "साधन धाम मोक्ष कर द्वारा" कहा गया है। मानव सेवा संघ के प्रर्वतक स्वामी शरणानन्दजी महाराज जी के द्वारा प्रतिपादित साधन सूत्र को सभी तक प्रसारित करने के लिए आपका बहुत-बहुत साधुवाद......

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